काशी विश्वेश्वर व ज्ञानवापी के इतिहास का सम्पूर्ण काला सच

वाराणसी (Varanasi) में भगवान भोलेनाथ के द्वादश ज्योतिर्लिंग पर काशी विश्वनाथ काॅरिडोर (Kashi Vishwanath Corridor) का निर्माण हुआ है तथा गर्भगृह में स्वर्ण मंडन भी हो गया, पर क्या यही है मूल व वास्तविक मंदिर जहाँ पर विराजते हैं भगवान भोलेनाथ? क्यों आज भी नंदी ज्ञानवापी (Gyanvapi) परिसर को ही निहार रहे हैं?

काशी विश्वनाथ मंदिर (Kashi Vishwanath Mandir) 12 ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है।

आपको इतिहास की जानकारी देते हैं। बता दें की कई इतिहासकारों ने 11 से 15वीं सदी के कालखंड में मंदिरों का वर्णन किया है और उसके विध्वंस की बातें भी लिखी हैं।

– मोहम्मद तुगलक (1325) के समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरी ने किताब ‘विविध कल्प तीर्थ’ में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देव क्षेत्र कहा जाता था।

– लेखक फ्यूहरर ने भी लिखा है कि फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ बड़े मंदिर मस्जिद में परिवर्तित हुए थे। फ्यूहरर के दस्तावेजों को अयोध्या के मामले में अदालत ने संज्ञान में लिया था।

– 1460 में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक ‘तीर्थ चिंतामणि’ में लिखा है कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही लिंग है।

– इतिहासकार डॉ. ए.एस. भट्ट ने अपनी किताब ‘दान हारावली’ में लिखा है कि महाराजा टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था। इसके पश्चात 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक आदेश जारी कर काशी विश्वेश्वर मंदिर ध्वस्त करने को कहा था।

Gyanvapi

आपको हम बता दें की औरंगजेब का यह आदेश कोलकाता की विश्वप्रसिद्ध एशियाटिक लाइब्रेरी में आज भी सुरक्षित रखा है।

इसके अतिरिक्त साकी मुस्तइद खां की पुस्तक ‘मासीदे आलमगिरी’ में भी इस विध्वंस का वर्णन है की औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक मस्जिद बनाई गई जिसे ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी।

आप स्वयं गणना करिए इतिहासकार डॉ. ए.एस. भट्ट की पुस्तक में 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब के उस आदेश का वर्णन है जिसमें काशी विश्वेश्वर के मूल मंदिर को ध्वस्त करने को कहा गया था। तथा साकी मुस्तइद खां की पुस्तक ‘मासीदे आलमगिरी’ में 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी का वर्णन है।

बहरहाल, कई इतिहासकारों के अनुसार इस प्राचीन मंदिर को 1194 में तोड़ा गया था। इसे फिर से बनाया गया परंतु एक बार फिर इसे 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया। इसके पश्चात 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। परंतु 1632 में शाहजहां ने इसे तोड़ने के लिए सेना भेज दी परंतु हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण सेना काशी विश्वेश्वर मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी, फिर भी काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए थे। परंतु औरंगजेब तो सबसे ऊपर था उसने अंततः 1669 में मूल मंदिर को ज्ञानवापी के विवादित ढाँचे में परिवर्तित कर ही दिया था।

आपको जानकारी के लिए बता दें की इसमें मराठों ने भी लड़ाई लड़ी थी।
1752 से 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त 1770 को महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाहआलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश भी जारी करा लिया था परंतु तब तक ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का पुनरुद्धार रुक गया।

Nandi

तत्पश्चात पुनः प्रयास कर वर्ष 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा मूल मंदिर के निकट में नवीन मंदिर का निर्माण करवाया गया था। अहिल्याबाई होलकर ने आजके इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र लगवाया था। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।

काशी की महत्ता को बताने की आवश्यकता नहीं है। काशी के बिना स्वयं शिव भी अधूरे हैं। इतने सारे आक्रमण व विध्वंस के पश्चात भी ना तो काशी व शिव को अलग किया जा सका ना ही काशी की महीमा को क्षति पहुँच सकी।

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अब यदि यहाँ मंदिर परिक्षेत्र में स्थित ज्ञानवापी कूप अर्थात कूएँ की बात करें तो आपको बता दें की सन् 1669 में औरंगजेब के आदेश के पश्चात मुगल सेना ने आक्रमण कर आदि विशेश्वर का मंदिर ध्वस्त किया था। तो किदवंतीयों के अनुसार स्वयंभू ज्योतिर्लिंग को कोई क्षति न हो इसके लिए मंदिर के महंत शिवलिंग को लेकर ज्ञानवापी कुंड में कूद गए थे। आक्रमण के समयावधि में मुगल सेना मंदिर के बाहर स्थपित विशाल नंदी की प्रतिमा को तोड़ने का भी प्रयास किया था परंतु सेना के कई प्रयासों के पश्चात भी वे नंदी की प्रतिमा को नहीं तोड़ सके। तब से आज तक विश्वनाथ मंदिर परिसर से दूर रहे ज्ञानवापी कूप और विशाल नंदी अपने आराध्य भोलेनाथ से भिन्न है।

नंदी अभी भी भोलेनाथ के मूल ज्योतिर्लिंग अर्थात काशी विश्वेश्वर को देख रहे हैं जो कि वर्तमान समय में ज्ञानवापी परिसर में स्थित है। एवं सुरक्षा की दृष्टि से इस स्थान पर CRPF के जवान तैनात हैं। नंदी के सामने का वह स्थान लोहे की जाली से घिरा हुआ है और उस स्थान पर जाना प्रतिबंधित है। परंतु नंदी जी क्या करें वो तो अपने आराध्य को एक टक निहार रहे हैं और उन्हें अपने स्थान पर ना देख पाने पर उनके हृदय पर क्या बीत रही होगी।

Gyanvapi

वहीं विश्वनाथ धाम परिसर की ओर आएं तो चुकी ज्ञानवापी कूप व नंदी अब काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर में सम्मिलित हैं तो यहाँ पर श्रद्धालु दर्शन पूजन करने को आ रहे हैं। एवं यह सभी दृश्य आपके समक्ष प्रस्तुत है।

इसपर अधिक जानकारी के लिए बता दें की 352 वर्ष पहले अलग हुआ यह ज्ञानवापी कूप एक बार फिर विश्वनाथ धाम परिसर में आ गया है और श्रद्धालु काशी विश्वनाथ मंदिर के साथ ही साथ इस कूप और विशाल नंदी का भी दर्शन कर अपनी मनोकामना मांग रहे हैं। 

मान्यता के अनुसार ज्ञानवापी कूप वह कूप है जहां जल इतना पवित्र है की उसके पान करने से जन्म-जन्मांतर, कल्प-कल्पांतर और युग युगांतर के पापों का क्षय होता है। वहीं इसी ज्ञानवापी कूप के पास स्थित विशाल नंदी भी अब मंदिर परिसर में आ गये है। नंदी धर्म के प्रतीक हैं और भगवान की सवारी हैं इसीलिए नंदी भी उसी रूप में पूज्य हैं। बता दें कि मुगल हमले के पश्चात पुजारियों ने ज्ञानवापी परिसर के बगल में दोबारा शिवलिंग की स्थापना कर पूजा पाठ आरंभ की। तब से ज्ञानवापी कूप और नंदी काशी विश्वनाथ मंदिर से बाहर हो गए थे। 352 वर्षों पश्चात दोबारा इतिहास दोहराया है और पौराणिक ज्ञानवापी कूप और विशाल नंदी मंदिर का भाग बन गया है।

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एक अन्य जानकारी के लिए बता दें की 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिलामजिस्ट्रेट वाटसन ने ‘वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल’ को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, परंतु यह कभी संभव नहीं हो पाया। और इसपर आज भी विवाद न्यायालय में चल रहा है।

काशी विश्वनाथ मंदिर इतनी बार तोड़ा गया और बनाया गया की अब तो मूल मंदिर का कोई अवशेष दिखाई भी नहीं पड़ता है। सबसे पहले 1194 में कुतुबुद्दीन ऐबक की सेना ने कन्नौज के राजा को पराजित करने के पश्चात काशी का ये प्राचीन मंदिर ध्वस्त किया था और यहाँ पर रज़िया मस्जिद का निर्माण करा दिया। मंदिर को इल्तुतमिश राज के समयावधि में दोबारा बनाया गया परंतु पुनः ढहाया गया। तत्पश्चात 1585 में राजा टोडरमल ने ये मंदिर बनवाया।

परंतु आक्रांताओं को चैन कहाँ था। वर्ष 1669 में ये मंदिर फिर तोड़ा गया, इस बार औरंगजेब की सेना द्वारा। औरंगजेब ने टूटे मंदिर के मलबे से मस्जिद बनवा दी और इसका नाम औरंगजेब की मस्जिद रख दिया। टोडरमल द्वारा बनवाये गए मंदिर के अवशेष ज्ञानवापी कुएं के पास देखे जा सकते हैं। आज की तारीख में जो विश्वनाथ मंदिर है वह मात्र मूल मंदिर का केवल विकल्प है जो ज्ञानवापी में स्थित मूल मंदिर का है जिसका नाम काशी विशेश्वर मंदिर था।

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ये अलग बात है कि विवशता के कारण अब लोक आस्था केवल काशी विश्वनाथ मंदिर पर केंद्रित है। यह आपको कितना उचित अथवा अनुचित लगता है ये हमें कमें बाॅक्स में लिखकर अवश्य बताएं।

मित्रों हमने प्रयास किया है कि आपको सभी जानकारी मिले ताकि आधे अधूरे ज्ञान को आप संपूर्ण ना समझ लें और ना ही लोक चर्चा से दूर होने के कारण आप इतिहास को भूलें।

मित्रों यदि आपको उपरोक्त काशी विश्वनाथ मंदिर के इतिहास की विशेष जानकारी पसंद आई हो तो कमेंट बाॅक्स हर हर महादेव में अवश्य लिखें।

आशिक जानकारी के लिए वीडियो देखें:

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